भारतीय किसान की समस्याएँ और समाधान:  हिंदी निबंध

संकेत बिन्दु भूमिका, दयनीय स्थिति के कारण, सुधार के सरकारी प्रयास, कृषि सम्बद्ध जानकारियों पर बल, रोजगार गारण्टी योजना, किसान क्रेडिट कार्ड, उपसंहार।

भूमिका कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था की घुरी है। देश की कुल श्रम-शक्ति का आधे से अधिक भाग कृषि एवं इससे सम्बन्धित उद्योग-धन्धों से अपनी आजीविका कमाता है। ब्रिटिश काल में भारतीय कृषक अंग्रेजों एवं जमीदारों के जुल्म से परेशान एवं बेहाल थे। स्वतन्त्रता के बाद उनकी स्थिति में काफी सुधार हुआ, किन्तु जिस तरह कृषकों के शहरों की ओर पलायन एवं उनकी आत्महत्या की खबरे सुनने को मिलती है, उससे यह स्पष्ट होता है कि उनकी स्थिति में आज भी अपेक्षित सुधार नहीं हो सका है। स्थिति इतनी विकट हो चुकी है कि कृषक अपने बच्चों को आज कृषक नहीं बनाना चाहता। वर्षों पहले किसी कवि द्वारा कही गई ये पंक्तियाँ आज भी प्रासंगिक हैं

WhatsApp Group Join Now
Telegram Group Join Now
Instagram Group Join Now

“जेठ हो कि पूस, हमारे कृषकों को आराम नहीं है, वसन कहाँ, सूखी रोटी भी मिलती दोनों शाम नहीं है।”

दयनीय स्थिति के कारण भारतीय कृषक अत्यन्त कठोर जीवन जीते हैं। अधिकतर भारतीय कृषक निरन्तर घटते भू-क्षेत्र के कारण गरीबी रेखा से नीचे जीवन-यापन कर रहे हैं। दिन-रात खेतों में परिश्रम करने के बाद भी उन्हें तन ढकने के लिए समुचित कपड़ा नसीब नहीं होता। जाड़ा हो या गर्मी, धूप हो या बरसात उन्हें दिन-रात बस खेतों में ही परिश्रम करना पड़ता है।

इसके बावजूद उन्हें फसलों से उचित आय की प्राप्ति नहीं हो पाती। बड़े-बड़े व्यापारी, कृषकों से सस्ते मूल्य पर खरीदे गए खाद्यान्न, सब्जी एवं फलों को बाजारों में ऊँची दरों पर बेच देते हैं। इस तरह कृषकों का श्रम लाभ किसी और को मिल जाता है और किसान अपनी किस्मत को कोसता है। किसानों की ऐसी दयनीय स्थिति का एक कारण यह भी है कि भारतीय कृषि मानसून पर निर्भर है और मानसून की अनिश्चितता के कारण प्रायः कृषकों को कई प्रकार की कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। समय पर सिंचाई नहीं होने के कारण भी उन्हें आशानुरूप फसल की प्राप्ति नहीं हो पाती। ऊपर से आवश्यक उपयोगी वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि के कारण कृषकों की स्थिति और भी दयनीय हो गई है तथा उनके सामने दो वक्त की रोटी की समस्या खड़ी हो गई है। कृषि में श्रमिकों की आवश्यकता साल भर नहीं होती, इसलिए साल के लगभग तीन-चार महीने कृषकों को खाली बैठना पड़ता है। इस कारण भी कृषकों के गाँवों से शहरों की ओर पलायन में वृद्धि हुई है।

सुधार के सरकारी प्रयास देश के विकास में कृषकों के योगदान को देखते हुए, कृषकों और कृषि क्षेत्र के लिए कार्य योजना का सुझाव देने हेतु डॉ. एम. एस. स्वामीनाथन की अध्यक्षता में ‘राष्ट्रीय कृषक आयोग’ का गठन किया गया था। इसने वर्ष 2006 में अपनी चौथी रिपोर्ट प्रस्तुत की, जिसमें कृषकों के लिए एक विस्तृत नीति के निर्धारण की संस्तुति की गई। इसमें कहा गया कि सरकार को सभी कृषिगत उपजों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित करना चाहिए तथा यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि कृषकों को विशेषतः वर्षा आधारित कृषि वाले क्षेत्रों में न्यूनतम समर्थन मूल्य उचित समय पर प्राप्त हो सके। राष्ट्रीय कृषक आयोग की संस्तुति पर भारत सरकार ने राष्ट्रीय कृषक नीति, 2007 की घोषणा की। इसमें कृषकों के कल्याण एवं कृषि के विकास के लिए कई बातों पर जोर दिया गया है।

कृषि सम्बद्ध जानकारियों पर बल आज से डेढ़-दो दशक पूर्व तक कृषकों को फसलों, खेती के तरीको एवं आधुनिक कृषि उपकरणो के सम्बन्ध में उचित जानकारी उपलब्ध नहीं होने के कारण खेती से उन्हें उचित लाभ नहीं मिल पाता था। इसलिए कृषकों को कृषि सम्बन्धी बातों की जानकारी उपलब्ध करवाने हेतु वर्ष 2004 में किसान कॉल सेण्टर की शुरुआत की गई।

कृषि सम्बन्धी कार्यक्रमों का प्रसारण करने वाले ‘कृषि चैनल’ की भी शुरुआत की गई। केन्द्र सरकार ने राष्ट्रीय ग्रामीण विकास बैंक के जरिए देश के ग्रामीण क्षेत्रों मे ‘रूरल नॉलेज सेण्टर्स’ की भी स्थापना की है।

रोजगार गारण्टी योजना कृषकों को वर्ष के कई महीने खाली बैठना पड़ता है, क्योंकि सालभर उनके पास काम नहीं होता, इसलिए ग्रामीण लोगों को गाँव में ही रोजगार उपलब्ध करवाने के उद्देश्य से राष्ट्रीय रोजगार गारण्टी अधिनियम के अन्तर्गत वर्ष 2006 में राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी योजना का शुभारम्भ किया गया।

2 अक्टूबर, 2009 से राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी अधिनियम (NREGA) का नाम बदलकर महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी अधिनियम (MNREGA) कर दिया गया है। यह अधिनियम ग्रामीण क्षेत्रों के प्रत्येक परिवार के एक वयस्क सदस्य को वर्ष में कम-से-कम 100 दिन के लिए रोज़गार की गारण्टी देता है। इस अधिनियम में इस बात को भी सुनिश्चित किया गया है कि इसके अन्तर्गत 33% लाभ महिलाओं को मिले।

इस योजना से पहले भी ग्रामीण क्षेत्र के लोगों को रोजगार प्रदान करने के लिए कई योजनाएँ प्रारम्भ की गई थीं, किन्तु उनमें भ्रष्टाचार के मामले अत्यधिक उजागर हुए। अतः इससे बचने के लिए रोजगार के इच्छुक व्यक्ति का रोजगार-कार्ड बनाने का प्रावधान किया गया है। कानून द्वारा रोजगार की गारण्टी मिलने के बाद न केवल ग्रामीण विकास को गति मिली है, बल्कि ग्रामीणों का शहर की ओर पलायन भी कम हुआ है।

किसान क्रेडिट कार्ड कृषकों को समय-समय पर धन की आवश्यकता पड़ती है। साहूकार से लिए गए ऋण पर उन्हें अत्यधिक ब्याज देना पड़ता है। कृषकों की इस आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए, उन्हें साहूकारों के शोषण से बचाने के लिए वर्ष 1998 में ‘किसान क्रेडिट कार्ड’ योजना की भी शुरुआत की – गई। इस योजना के फलस्वरूप कृषकों के लिए वाणिज्यिक बैंकों, क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों तथा सहकारी बैंकों से ऋण प्राप्त करना सरल हो गया है।

उपसंहार कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ है, इसलिए अर्थव्यवस्था में सुधार एवं देश की प्रगति के लिए किसानों की प्रगति आवश्यक है। केन्द्र एवं राज्य सरकार द्वारा प्रारम्भ की गई विभिन्न प्रकार की योजनाओं एवं नई कृषि नीति के फलस्वरूप कृषकों की स्थिति में सुधार हुआ है, किन्तु अभी तक इसमें सन्तोषजनक सफलता प्राप्त नहीं हो सकी है।

आशा है, विभिन्न प्रकार के सरकारी प्रयासों एवं योजनाओ के कारण, आने वाले वर्षों में कृषक समृद्ध होकर भारतीय अर्थव्यवस्था को सही अर्थों में प्रगति की राह पर अग्रसर कर सकेंगे।

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Scroll to Top