आरक्षण : वरदान या अभिशाप:  हिंदी निबंध

संकेत बिन्दु भूमिका, वंचित वर्गों हेतु प्रावधान, आरक्षण का लाभ, आरक्षण के नाम पर राजनीति, उपसंहार।

भूमिका स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् भारत में दलितों एवं आदिवासियों की दशा अत्यन्त दयनीय थी। इसलिए हमारे संविधान निर्माताओं ने काफी सोच-समझकर इनके लिए संविधान में आरक्षण की व्यवस्था की और वर्ष 1950 में संविधान के लागू होने के साथ ही सुविधाओं से वंचित वर्गों को आरक्षण की सुविधा मिलने लगी, ताकि देश के संसाधनों, अवसरों एवं शासन प्रणाली में समाज के प्रत्येक समूह की उपस्थिति सुनिश्चित हो सके। उस समय हमारा समाज ऊँच-नीच, जाति-पाँति, छुआछूत जैसी कुरीतियों से ग्रसित था। हमारे पूर्व प्रधानमन्त्री श्री लालबहादुर शास्त्री ने एक बार कहा भी था “यदि कोई भी व्यक्ति ऐसा रह गया जिसे किसी रूप में अछूत कहा जाए, तो भारत को अपना सर शर्म से झुकाना पड़ेगा।” वास्तव में, आरक्षण वह माध्यम है, जिसके द्वारा जाति, धर्म, लिंग एवं क्षेत्र के आधार पर समाज में भेदभाव से प्रभावित लोगों को आगे बढ़ने का अवसर प्राप्त होता है, किन्तु वर्तमान समय में देश में प्रभावी आरक्षण नीति को उचित नहीं ठहराया जा सकता, क्योंकि आज यह राजनेताओं के लिए सिर्फ वोट नीति बनकर रह गई है। वंचित वर्ग आरक्षण के लाभ से आज भी अछूता है।

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वंचित वर्गों हेतु प्रावधान भारतीय संविधान में वंचित वर्गों के उत्थान के लिए विशेष प्रावधान का वर्णन इस प्रकार है- अनुच्छेद-15 (समानता का मौलिक अधिकार) द्वारा राज्य किसी नागरिक के विरुद्ध केवल धर्म, मूल वंश, जाति, लिंग, जन्म स्थान या इनमें से किसी के आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा।

लेकिन अनुच्छेद-15 (4) के अनुसार, इस अनुच्छेद की या अनुच्छेद-29 के खण्ड (2) की कोई बात राज्य को शैक्षिक अथवा सामाजिक दृष्टि से पिछड़े नागरिकों के किन्हीं वर्गों की अथवा अनुसूचित जाति एवं जनजातियों के लिए कोई विशेष व्यवस्था बनाने से नहीं रोक सकती अर्थात् राज्य चाहे तो इनके उत्थान के लिए आरक्षण या शुल्क में कमी अथवा अन्य उपबन्ध कर सकता है। कोई भी व्यक्ति उसकी विधि-मान्यता पर हस्तक्षेप नहीं कर सकता कि यह वर्ग-विभेद उत्पन्न करते हैं। स्वतन्त्रता प्राप्ति के समय से ही भारत में अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए सरकारी नौकरियों एवं शिक्षा में आरक्षण लागू है। मण्डल आयोग की संस्तुतियों के लागू होने के बाद वर्ष 1983 से ही अन्य पिछड़े वर्गों के लिए नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था कर दी गई। वर्ष 2006 के बाद से केन्द्र सरकार के शिक्षण संस्थानों में भी अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण लागू हो गया। इस प्रकार आज समाज के अत्यधिक बड़े वर्ग को आरक्षण की सुविधाओं का लाभ प्राप्त हो रहा है, लेकिन इस आरक्षण नीति का कोई परिणाम नहीं निकला। अन्य पिछड़े वर्गों के लिए मौजूद आरक्षण की समीक्षा तो सम्भव भी नहीं है, क्योकि इससे सम्बद्ध वास्तविक आँकड़ों का पता ही नहीं, चूँकि आँकड़े नहीं हैं, इसलिए योजनाओं का कोई लक्ष्य भी नहीं है। आँकड़ों के अभाव में इस देश के संसाधनों, अवसरों और राज-काज में किस जाति और जाति समूह की कितनी हिस्सेदारी है, इसका तुलनात्मक अध्ययन ही सम्भव नहीं है। सैम्पल सर्वे (नमूना सर्वेक्षण) के आँकड़े इसमें कुछ मदद कर सकते हैं, लेकिन इतने बड़े देश में चार-पाँच हजार के नमूना सर्वेक्षण से ठोस नतीजे नहीं निकाले जा सकते।

आरक्षण का लाभ सरकार ने 104 वें संविधान संशोधन के द्वारा देश में सरकारी विद्यालयों के साथ-साथ गैर-सहायता प्राप्त निजी शिक्षण संस्थाओं में भी अनुसूचित जातियों/जनजातियों एवं अन्य पिछड़े वर्गों के अभ्यर्थियों को आरक्षण का लाभ प्रदान कर दिया है। आरक्षण कमजोर और दलित वर्ग को एक ऐसा आधार प्रदान करता है, जिससे उसके सदस्य सामाजिक और शैक्षिक उत्थान करके समाज के उन्नत वर्गों की बराबरी कर सकें और समाज में समरसता का भाव पैदा हो सके। सरकार के इस निर्णय का समर्थन और विरोध दोनों हुए हैं। वास्तव में, निजी क्षेत्रों में आरक्षण लागू होना अत्यधिक कठिन है, क्योंकि निजी क्षेत्र लाभ से समझौता नहीं कर सकते, यदि गुणवत्ता प्रभावित होने से ऐसा होता हो। ‘तुलियन सिविजियन’ ने कहा था- “जब आपके पास खोने के लिए कुछ भी न होगा, तब आप अद्भुत आविष्कार करेंगे, आप बिना डर या आरक्षण के बड़ा जोखिम लेने हेतु तैयार रहेंगे।”

आरक्षण के नाम पर राजनीति पिछले कई वर्षों से आरक्षण के नाम पर राजनीति हो रही है, आए दिन कोई-न-कोई वर्ग अपने लिए आरक्षण की माँग कर बैठता है एवं इसके लिए आन्दोलन करने पर उतारू हो जाते हैं। इस तरह देश में अस्थिरता एवं अराजकता की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। आर्थिक एवं सामाजिक पिछड़ेपन के आधार पर निम्न वर्ग के लोगों के उत्थान के लिए उन्हें सेवा एवं शिक्षा में आरक्षण प्रदान करना उचित है, लेकिन जाति एवं धर्म के आधार पर तो आरक्षण को कतई उचित नहीं कहा जा सकता, क्योंकि एक ओर तो इससे समाज में विभेद उत्पन्न होता है, तो दूसरी ओर आरक्षण पाकर व्यक्ति कर्म क्षेत्र से भी विचलित होने लगता है।

आरक्षण देने के बदले राजनीतिक दलों द्वारा राजनीतिक लाभ प्राप्त किया जा रहा है। राजनीतिक दलों की सरकारों पर प्रतिस्पर्द्धा हो गई है कि अनेक जातियों को इस वर्ग में सम्मिलित कर उन्हें आरक्षण दिलवाने का श्रेय स्वयं लिया जाए, जिसके कारण वे उनके वोट बैंक बन सकें। राजनीतिक दलों में आरक्षण वोट लेने के लिए अन्तिम और एकमात्र साधन दिखाई देता है, लेकिन गरीब वर्ग के सामाजिक उत्थान पर किसी का ध्यान नहीं जाता। कार्लाइल ने भी कहा था- “तुम किसी समुदाय को निष्क्रिय बनाना चाहते हो, तो उसे अतिरिक्त सुविधाएँ दे दो, सुविधाओं के मोह में समुदाय कर्मपथ से विरत हो जाएगा।” ऊँची डाली को छूने के लिए हमें ऊपर उठना चाहिए न कि डाली को ही झुकाना चाहिए। उसी तरह कमजोर को योग्य बनाकर उसे कार्य सौंपे, न कि आरक्षण से कार्य को ही झुका दें।

उपसंहार वर्ष 2014 के प्रारम्भ में कांग्रेस पार्टी के महासचिव श्री जनार्दन द्विवेदी ने कहा था कि देश में आरक्षण जाति आधार पर नहीं, बल्कि आर्थिक आधार पर किया जाना चाहिए। वास्तव में, द्विवेदी जी की कही बात पर गम्भीरतापूर्वक विचारने का समय आ गया है, क्योंकि आज प्रश्न गरीबी का है।

गरीबी की कोई जाति या धर्म नहीं होता। आज समाज के हर वर्ग के उत्थान हेतु आरक्षण के अतिरिक्त अन्य विकल्प भी खोजा जाना चाहिए, ताकि समाज में सबके साथ न्याय हो सके और सभी वर्गों के लोग एक साथ उन्नति के पथ पर अग्रसर हो सकें।

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