महिला आरक्षण सार्थकता:  हिंदी निबंध

संकेत बिन्दु भूमिका, आरक्षण की आवश्यकता क्यों? महिला आरक्षण विधेयक की वर्तमान स्थिति, महिला आरक्षण के पक्ष एवं विपक्ष में तर्क, उपसंहार।

भूमिका भारतीय संविधान में स्त्री तथा पुरुष, दोनों को समान दर्जा दिया गया है। दोनों के अधिकार तथा कर्त्तव्य, लगभग समान है, लेकिन फिर भी स्त्रियों और पुरुषों की विकास दर में भारी असमानता है। वर्तमान समय में देश की महत्त्वपूर्ण राजनीतिक संस्थाओं में स्त्रियों की भागीदारी 10% से भी कम है, जो कि गम्भीर चिन्ता का विषय है। विश्व के सबसे बड़े लोकतान्त्रिक देश भारत में स्वतन्त्रता प्राप्ति के 67 वर्षों बाद भी भारतीय नारी लोकतान्त्रिक प्रक्रिया में पीछे छूट गई है। उनकी स्थिति को सुधारने के लिए समय-समय पर महिला आरक्षण का विषय उठाया जाता है।

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आरक्षण की आवश्यकता क्यों? महिला आरक्षण के सन्दर्भ में सबसे महत्त्वपूर्ण सवाल यह है कि महिलाओं को पर्याप्त आरक्षण क्यों मिलना चाहिए? इसके लिए हमें उनकी सामाजिक स्थिति के बारे में गहराई से पड़ताल करने की आवश्यकता है। वास्तव में, देखा जाए तो न सिर्फ भारत में बल्कि पूरे विश्व के पुरुष प्रधान समाजों में महिलाओं को दोयम दर्जे का प्राणी माना जाता रहा है। एक ओर स्त्रियाँ आर्थिक रूप से पुरुषों के अधीन रही हैं, तो दूसरी ओर सार्वजनिक जीवन में उनकी स्थिति अत्यधिक असंतोषजनक रही है। उत्तर वैदिकाल से ही महिलाओं की सामाजिक एवं राजनीतिक स्थिति निरन्तर निम्न होती गई। मनु जैसे नीति-निर्धारक ने तो स्त्रियों के बारे में स्पष्ट रूप से घोषण कर दी कि

“पिता रक्षति कौमार्य, भर्ता रक्षति यौवने। क्षन्ति स्थविरे पुत्राः, ने स्त्री स्वातन्त्र्य मर्हति ।।।”

अर्थात् बचपन में स्त्री की रक्षा पिता करता है, जवानी में पति तथा बुढ़ापे – में पुत्र, इसलिए स्त्रियाँ स्वतन्त्रता के योग्य ही नहीं हैं। धीरे-धीरे मध्यकाल तक आते-आते उनके सभी अधिकार छीन लिए गए। उन्हें पुरुषों के उपयोग की वस्तु मात्र बना दिया गया। पर्दा प्रथा के आगमन के साथ-साथ उनकी स्थिति और बदतर होती गई।

हालाँकि, स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् उनका उल्लेखनीय विकास हुआ है, परन्तु फिर भी उनकी स्थिति असन्तोषजनक बनी हुई है। बिना आरक्षण महिलाओं की राजनीतिक स्थिति को सुदृढ़ कर पाना अत्यधिक कठिन है, क्योंकि अधिकांश राजनीतिक दल पुरुष प्रधान मानसिकता वाले हैं, जो चुनावों में सामान्यतया महिलाओं को अपना उम्मीदवार नहीं बनाते। महिला प्रमुख पार्टियाँ भी पुरुष प्रधान समाज के कारण पुरुषों को ही उम्मीदवार बनाने के लिए बाध्य हैं।

महिला आरक्षण विधेयक की वर्तमान स्थिति महिलाओं का आरक्षण देने सम्बन्धी मुद्दा पहली बार राजीव गांधी ने उठाया था। भारतीय समाज में स्त्रियों के प्रति उपेक्षापूर्ण व्यवहार की समाप्ति एवं उनकी राजनीतिक स्थिति को सुदृढ़ करने के लिए लगभग चौदह वर्ष पूर्व ही महिला आरक्षण विधेयक लोकसभा में प्रस्तुत किया गया था, जिसके अनुसार संसद में एक-तिहाई सीटें महिला उम्मीदवारों के लिए आरक्षित होंगी। यह विधेयक तब से लेकर अब तब राजनीतिक दलों की राजनीति का शिकार है। मार्च, 2010 में राज्यसभा मे यह विधेयक पारित हो जाने के बाद महिलाओं को एक-तिहाई आरक्षण देने की नीति पर काफी हंगामा हो चुका है। इसके अतिरिक्त, अभी तक किसी भी समिति या आयोग ने महिलाओं के लिए स्वतन्त्र रूप से आरक्षण प्रदान करने की कभी भी संस्तुति या सिफारिश नहीं की है।

महिला आरक्षण के पक्ष एवं विपक्ष में तर्क महिला आरक्षण का समर्थन क्यों किया जा रहा है तथा इसका इतना विरोध क्यों किया जा रहा है, इन दोनों ही स्थितियों को जानना तथा समझना आवश्यक है। पहले बात करते हैं-महिला आरक्षण विधेयक के समर्थन की। इस पक्ष की विचारधार को समझना कठिन नहीं है। जाहिर सी बात है कि इस विधेयक के पारित हो जाने के बाद राजनीतिक रूप से महिलाओं की स्थिति में व्यापक सुधार होगा, जिसका प्रभाव दूसरे क्षेत्रों में भी देखने को मिलेगा। महिला प्रतिनिधि महिलाओं की समस्याओं को आसानी से समझ पाएगी और अपनी राजनीतिक स्थिति के कारण उनका समाधान भी कर पाएगी। कहने का तात्पर्य है कि महिला प्रतिनिधि अधिक संवेदनशीलता के साथ ऐसे मसलों को हल कर पाएगी। इसके अलावा, महिलाओं के राजनीति में आने से भ्रष्टाचार में कमी आने की सम्भावना है क्योंकि महिलाएँ नैतिक दृष्टि से पुरुषों की तुलना में बेहतर मानी जाती हैं।

अब बात करते हैं-महिला आरक्षण की विरोधी विचारधारा के बारे में। हैरानी की बात है कि महिलाएँ भी इसके विरोध में शामिल हैं, लिहाजा इसके विरोध के कारणों की पड़ताल करना भी आवश्यक है। इसका पहला कारण तो यह है कि एक-तिहाई आरक्षण की व्यवस्था होने से महिलाओं को आरक्षण के तहत आरक्षित सीटों पर ही चुनाव लड़ने के लिए बाध्य किया जाएगा। जिससे उनकी भागीदारी मात्र एक-तिहाई तक ही सीमित हो जाएगी और स्वतन्त्र रूप से राजनीति में आने वाली महिलाओं को बहुत कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है। मतलब साफ़ है कि पुरुष यदि अपनी मानसिकता के कारण इस विधयेक का विरोध कर रहे हैं, तो स्त्रियाँ पुरुष मानसिकता के बदले हुए रूप को लेकर भी चिन्तित हैं। विरोध का एक अन्य महत्त्वपूर्ण कारण यह भी है कि आरक्षण के तहत चुनकर आने वाली सांसद महिलाओं की स्थिति का अनुचित फ़ायदा उनके परिवार के पुरुष सदस्य उठा सकते हैं। यदा-कदा ऐसी घटनाएँ प्रकाश में आती रहती हैं, जब पुरुष अपनी पत्नियों की राजनीतिक स्थिति का लाभ उठाते पाए जाते हैं और स्वयं वह प्रतिनिधि महिला शोषण और प्रताड़ना का शिकार रहती है। इस प्रकार, राजनीति में एक अलग प्रकार की समस्या देखने का मिल सकती है। अतः इस मसले पर गम्भीरता से विचार करने की आवश्यकता है, साथ ही यदि इसे क्रियान्वित किया जाता है तो उस पर नज़र रखनी होगी।

उपसंहार एक तरह से देखा जाए तो महिला आरक्षण विधेयक का विरोध भी निराधार नहीं है। वैसे अच्छा तो यह होता कि महिलाओं को विधायिकाओं में आरक्षण देने की अपेक्षा शैक्षिक एवं आर्थिक क्षेत्र में विकास के पर्याप्त अवसर प्रदान किए जाते तथा समाज में ऐसा वातावरण निर्मित किया जाता, जिससे स्त्रियाँ स्वयं को प्रासंगिक एवं स्वतन्त्र महसूस करतीं तथा देश के विकास में पुरुषों के समकक्ष भागीदारी बनतीं। अतः समय की माँग है कि समाज के चतुर्मुखी एवं समग्र विकास के लिए आधी आबादी को सहयोगी बनाया जाए और उसकी सहभागिता के लिए यदि आरक्षण आवश्यक हो, तो इस प्रणाली को भी उचित रूप देकर क्रियान्वित किया जाए।

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