संकेत बिन्दु साहित्य का तात्पर्य, साहित्य समाज का दर्पण, साहित्य विकास का उद्गाता, उपसंहार
साहित्य का तात्पर्य साहित्य समाज की चेतना से उपजी प्रवृत्ति है। समाज व्यक्तियों से बना है तथा साहित्य समाज की सृजनशीलता का प्रतिरूप है। साहित्य का शाब्दिक अर्थ है- जिसमें हित की भावना सन्निहित हो। साहित्य और समाज के सम्बन्ध कितने घनिष्ठ हैं, इसका परिचय साहित्य शब्द की व्युत्पत्ति, अर्थ एवं उसकी विभिन्न परिभाषाओं से प्राप्त हो जाता है। ‘हितं सन्निहितं साहित्यम्’। हित का भाव जिसमें विद्यमान हो, वह साहित्य कहलाता है।
अंग्रेजी विद्वान् मैथ्यू आर्नल्ड ने भी साहित्य को जीवन की आलोचना माना है- “Poetry is the bottom criticism of life.” वर्सफोल्ड नामक पाश्चात्य विद्वान् ने साहित्य का रूप स्थिर करते हुए लिखा है- “Literature is the brain of humanity.” अर्थात् साहित्य मानवता का मस्तिष्क है।
जिस प्रकार बेतार के तार का ग्राहम यन्त्र आकाश मण्डल में विचरती हुई विद्युत तरंगों को पकड़कर उनको भाषित शब्द का आधार देता है, ठीक उसी प्रकार कवि या लेखक अपने समय में प्रचलित विचारों को पकड़कर मुखरित कर देता है। कवि और लेखक अपने समाज के मस्तिष्क हैं और मुख भी। कवि की पुकार समाज की पुकार है। वह समाज के भावों को व्यक्त कर सजीव और शक्तिशाली बना देता है। उसकी भाषा में समाज के भावों की झलक मिलती है।
साहित्य समाज का दर्पण साहित्य और समाज के बीच अत्यन्त घनिष्ठ सम्बन्ध है। साहित्य समाज का प्रतिबिम्ब है। जनजीवन के घरातल पर ही साहित्य का निर्माण होता है। समाज की समस्त शोभा, उसकी समृद्धि, मान-मर्यादा सब साहित्य पर अवलम्बित हैं। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के शब्दों में, “प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिम्ब है।” समाज की क्षमता और सजीवता यदि कहीं प्रत्यक्ष देखने को मिल सकती है, तो निश्चित रूप से साहित्य रूपी दर्पण में ही। कतिपय विद्वान् साहित्य की उत्पत्ति का मूल कारण कामवृत्ति को मानते हैं। ऐसे लोगों में फ्रायड विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
कालिदास, सूर एवं तुलसी पर हमें गर्व है, क्योंकि उनका साहित्य हमें एक संस्कृति और एक जातीयता के सूत्र में बाँधता है, इसलिए साहित्य केवल हमारे समाज का दर्पण मात्र न रहकर उसका नियामक और उन्नायक भी होता है। वह सामाजिक अन्धविश्वासों और बुराइयों पर तीखा प्रहार करता है। समाज में व्याप्त रूढ़ियों और आडम्बरों को दूर करने में साहित्य का महत्त्वपूर्ण स्थान है। साहित्य समाज का दर्पण होने के साथ मार्गदर्शक भी होता है, जो समाज को दिशा प्रदान करता है।
साहित्य विकास का उद्गाता साहित्य द्वारा सम्पन्न सामाजिक और राजनीतिक क्रान्तियों के उल्लेखों से तो विश्व इतिहास भरा पड़ा है। सम्पूर्ण यूरोप को गम्भीर रूप से आलोकित करने वाली ‘फ्रांस की राज्य क्रान्ति’ (1789 ई.) काफी हद तक रूसो की ‘सामाजिक अनुबन्ध’ नामक पुस्तक के प्रकाशन का ही परिणाम थी। इन्हीं विचारों का पोषण करते हुए कवि त्रिलोचन के उद्गार उल्लेखनीय हैं-
“बीज क्रान्ति के बोता हूँ मैं,
अक्षर दाने हैं
घर-बाहर जन समाज को
नए सिरे से रच देने की रुचि देता हूँ।”
आधुनिक काल में चार्ल्स डिकेंस के उपन्यासों ने इंग्लैण्ड से कई
सामाजिक एवं नैतिक रूढ़ियों का उन्मूलन कर नूतन स्वस्थ सामाजिक व्यवस्था का सूत्रपात कराया। यदि अपने देश के साहित्य पर दृष्टिपात करें, तो एक ओर बिहारी के ‘नहिं पराग नहिं मधुर मधु’ जैसे दोहे ने राजा जयसिंह को नारी-मोह से मुक्त कराकर कर्त्तव्य पालन के लिए प्रेरित किया, तो दूसरी ओर कबीर, तुलसी, निराला, प्रेमचन्द जैसे साहित्यकारों ने पूरी सामाजिक व्यवस्था को एक नई सार्थक एवं रचनात्मक दिशा दी। रचनाकारों की ऐसी अनेक उपलब्धियों की कोई सीमा नहीं।
उपसंहार वास्तव में, समाज और साहित्य का परस्पर अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। इन्हें एक-दूसरे से अलग करना सम्भव नहीं है। अतः आवश्यकता इस बात की है कि साहित्यकार सामाजिक कल्याण हेतु सद्साहित्य का सृजन करें। साहित्यकार को उसके उत्तरदायित्व का बोध कराते हुए राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी ने कहा है कि
“केवल मनोरंजन न कवि का कर्म होना चाहिए, उसमें उचित उपदेश का भी मर्म होना चाहिए।”
सुन्दर समाज निर्माण के लिए साहित्य को माध्यम बनाया जा सकता है। यदि समाज स्वस्थ होगा, तभी राष्ट्र शक्तिशाली बन सकता है।