प्रस्तावना ‘परहित’ अर्थात् दूसरों का हित करने की भावना की महत्ता को स्वीकार करते हुए ‘गोस्वामी तुलसीदास’ ने लिखा है-
“परहित सरिस धरम नहिं भाई। पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।।”
इन पंक्तियों का अर्थ है-परोपकार से बढ़कर कोई उत्तम धर्म अर्थात् कर्म नहीं है और दूसरों को कष्ट पहुँचाने से बढ़कर कोई भी नीच कर्म नहीं है। हमारे संस्कृत-ग्रन्थ भी ‘परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम्’ अर्थात् दूसरों को हित पहुँचाना पुण्यकारक तथा दूसरों को कष्ट देना पापकारक है जैसे वचनों से भरे पड़े हैं। वास्तव में परहित या परोपकार की भावना ही मनुष्य को ‘मनुष्य’ बनाती है। किसी भूखे व्यक्ति को खाना खिलाते समय या किसी विपन्न व्यक्ति की सहायता करते समय हृदय को जिस असीम आनन्द की प्राप्ति होती है, वह अवर्णनीय है, अकथनीय है।
सन्देश देती प्रकृति हमारे चारों ओर प्रकृति का घेरा है और प्रकृति अपने क्रियाकलापों से हमें परहित हेतु जीने का सन्देश देती है, प्रेरणा देती है।
सूर्य अपना सारा प्रकाश एवं ऊर्जा जगत् के प्राणियों को दे देता है, नदी अपना सारा पानी जन-जन के लिए लुटा देती है। वृक्ष अपने समग्र फल प्राणियों में बाँट देते हैं, तो वर्षा जगत की तप्तता को शान्त करती है।
प्रकृति की परोपकार भावना को महान् छायावादी कवि ‘पन्तजी’ ने निम्न शब्दों में उकेरा है-
“हँसमुख प्रसून सिखलाते पलभर है जो हँस पाओ।
अपने उर सौरभ से
जग का आँगन भर जाओ।”
संस्कृति का आधार : परोपकार भारत सदा से अपनी परोपकारी परम्परा के लिए पूरे विश्व में प्रसिद्ध रहा है। यहाँ ऐसे लोगों को ही महापुरुष की श्रेणी में शामिल किया गया है, जिन्होंने स्वार्थ को त्यागकर लोकहित को अपनाया। यहाँ ऋषियों एवं
तपस्वियों की महिमा का गुणगान इसलिए किया जाता है, क्योंकि उन्होंने ‘स्व’ की अपेक्षा ‘पर’ को अधिक महत्त्व दिया। छायावादी स्तम्भ जयशंकर प्रसाद ‘कामायनी’ में लिखते हैं-
“औरों को हँसते देखो मनु, हँसो और सुख पाओ, अपने सुख को विस्तृत कर लो सबको सुखी बनाओ।”
जगत-कल्याण के लिए कृत संकल्प भारत की भूमि ही वह पावन भूमि है, जहाँ बुद्ध एवं महावीर जैसे सन्तों ने जगत कल्याण के लिए अपना राजपाट, वैभव, सुख, सब कुछ त्याग दिया। परोपकार की भावना से ओत-प्रोत होने के लिए आवश्यक है कि हम अपने जीवन में प्रेम, करुणा, उदारता, दया जैसे सद्गुणों को धारण करें। दिखावे के लिए किया गया परोपकार अहंकार को जन्म देता है, जिसमें परोपकारी इसके बदले सम्मान पाने की भावना रखता है। वास्तव में यह परोपकार नहीं, व्यापार है। परोपकार तो निःस्वार्थ भावना से प्रकृति के विभिन्न अंगों के समान होना चाहिए। राजा भर्तृहरि ने नीतिशतक में लिखा है ‘महान् आत्माएँ अर्थात् श्रेष्ठ जन उसी प्रकार स्वतः दूसरों का भला करते हैं, जैसे सूर्य कमल को खिलाता है, चन्द्रमा कुमुदिनी को विकसित करता है तथा बादल बिना किसी के कहे जल देता है।
उपसंहार परोपकार करने से व्यक्ति की आत्मा तृप्त होती है और विस्तृत भी। उसका हृदय एवं मस्तिष्क अपने पराये की भावना से बहुत ऊपर उठ जाता है। इस आत्मिक आनन्द की तुलना भौतिक सुखों से नहीं की जा सकती। परोपकार व्यक्ति को अलौकिक आनन्द प्रदान करता है। उसमें मानवीयता का विस्तार होता है और वह सही अर्थों में मनुष्य कहलाने का अधिकारी बनता है।
राष्ट्रकवि मैथिलीशरण ‘गुप्त’ ने ठीक ही लिखा है- “मनुष्य है वही कि जो मनुष्य के लिए मरे, यही पशु प्रवृत्ति है कि आप-आप ही चरे।”