संकेत बिन्दु प्रस्तावना, भाग्यवाद की धारणा गलत है, कर्म पर विश्वास करना ही उचित है, स्वावलम्बन व परावलम्बन, उपसंहार।
प्रस्तावना सुख-दुःख, सफलता असफलता, यश-अपयश आदि का कारण ‘भाग्य’ को मान लेना नितान्त अज्ञानता है। परमात्मा किसी के भाग्य में सुख और किसी के भाग्य में दुःख नहीं लिखता। यह सब अपने ही कर्मों का परिणाम होता है, जो हम भोगते हैं- चाहे वह आनन्ददायक हो या पीड़ादायक। कहने का तात्पर्य यही है कि मनुष्य को भाग्यवादी न होकर उद्यमी होना चाहिए। मनुष्य अपने भाग्य से नहीं वरन् कर्म से महान बनता है।
भाग्यवाद की धारणा गलत है भाग्य पर सब कुछ छोड़ना, उसी पर ही निर्भर होना, भाग्यवाद कहलाता है। भाग्यवाद का उपदेश आलसी व कर्म से जी चुराने वाले व्यक्ति ही देते हैं। जो मनुष्य भाग्य के भरोसे ही बैठे रहते हैं, वे जीवन में कुछ भी नहीं कर पाते। भाग्यवाद का सहारा लेने वाले मनुष्य जहाँ होते हैं, वहीं रह जाते हैं। अतः हमें चाहिए कि हम अपने भाग्य के भरोसे न बैठकर कर्म को प्रधानता दें। कर्म करके ही मनुष्य भाग्य को सँवार सकता है। भाग्यवादी थोथे चने के समान होता है, जो बोलता तो ज्यादा है, परन्तु वास्तव में अन्दर से वह खोखला होता है। ऐसा मनुष्य स्वयं के लिए कुछ नहीं कर सकता, तो अन्य के क्या काम आ सकता है? भाग्यवाद का निर्धारण करने वाला अपने साथ कुछ भी गलत होने पर परमात्मा को दोष देता है, जो कि गलत है। अपनी कर्महीनता का विश्लेषण न करके अपनी आँखों पर भाग्य की पट्टी बाँध लेता है और दोष ईश्वर पर मढ़ देता है। अतः स्पष्ट है कि भाग्यवादी और उनके भाग्यवाद की धारणा दोनों ही गलत होते हैं।
कर्म पर विश्वास करना ही उचित है किसी ने सत्य ही कहा है कि “मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता स्वयं है।” भाग्य के भरोसे बैठकर या तो वह स्वयं को अकर्मण्य बना सकता है या शेरपा तेनजिंग व एडमण्ड हिलेरी की तरह अपने अथक प्रयासों से अर्थात् कर्मठता से एवरेस्ट को भी फतह कर लेता है, जो व्यक्ति उद्यम अर्थात् अपने कर्म पर विश्वास करता है वह जीवन में असफलताओं के डर से अपने लक्ष्य से नहीं भटकता। वह बार-बार प्रयास करता है और अन्ततः सफलता हासिल कर ही लेता है। एक राजा युद्ध से हारा हुआ, भागकर एक गुफा में आश्रय ले लेता है। वहाँ वह एक चींटी के गुफा की दीवार पर बार-बार चढ़ने और गिरने के अथक उद्यम को देखता है। वह देखता है कि बार-बार प्रयास करने के बाद चींटी दीवार पर चढ़ जाती है। यह सब देखकर उसके अन्दर एक नव-शक्ति का संचार होता है। वह पुनः अपनी सेना का संगठन करता है और अपने शत्रु को हराकर अपना खोया हुआ राज्य पा लेता है। यही कर्म की शक्ति है। हमारे कर्म ही हमारे भाग्य का निर्माण करते हैं। हम संसार में निरन्तर कर्म करते हुए अपने किसी भी लक्ष्य को पा सकते हैं।
भाग्य का निर्माण न तो कोई अचानक होने वाला संयोग होता है और न ही उसका बनना-बिगड़ना किसी व्यक्ति की इच्छा पर निर्भर करता है। मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता स्वयं होता है। यदि मनुष्य चाहे तो उसके भाग्य में समृद्धि, वैभव, यश, ऐश्वर्य सभी प्रकार की सुख-सुविधाएँ हो सकती हैं। परन्तु यह भी ध्यान रखना आवश्यक है कि अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए हम दुष्कर्मों में न प्रवृत्त हो जाएँ, अन्यथा हमें उनके दुष्परिणाम भोगने पड़ सकते हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है कि- “जो मनुष्य जैसा कर्म करता है, उसे वैसा ही फल-परिणाम अवश्य मिलता है।” अतः हमें अपने भाग्य को बनाने के लिए सत्कर्मो की ओर ही प्रवृत्त होना चाहिए।
स्वावलम्बन व परावलम्बन जो मनुष्य अपने कर्तव्य पथ का निर्माण स्वयं करता है, उसे स्वावलम्बी कहते हैं तथा जो मनुष्य अपने किसी भी कार्य के लिए दूसरों को तलाशता है, उसे परावलम्बी कहते हैं। अपनी उन्नति और सफलता के लिए हमें दूसरों का मुँह नहीं ताकना चाहिए।
इससे हमारी शक्तियाँ व क्षमताएँ कुण्ठित हो सकती हैं। परावलम्बन से आत्महीनता, आत्मविश्वास में कमी, साहस का अभाव आदि अवगुण विकसित हो जाते हैं।
परावलम्बी अपनी सफलता के लिए दूसरों पर निर्भर होने के साथ-साथ अपनी असफलताओं का कारण भी अन्य को ही मानता है। इससे उसमें ईर्ष्या, द्वेष-भाव का जन्म होता है और वह अपना आत्मबल खो देता है तथा अपनी इस संकीर्ण सोच के कारण अपने साथ-साथ दूसरे का भी अहित करता है, परन्तु पुरुषार्थी व्यक्ति अपने बलबूते ही आगे बढ़ता है और प्रतिकूल परिस्थितियों को भी अपने अनुकूल कर लेता है। स्वावलम्बी व्यक्ति यदि असफल भी होता है, तो वह स्वयं की कमियों को ही उत्तरदायी मानकर पहले उनका निवारण करता है और अपने अन्दर निरन्तर सुधार और विकास करता है। अतः इस तरह वह निश्चय ही एक-न-एक दिन सफलता का स्वाद चख ही लेता है।
उपसंहार मनुष्य को चाहिए कि वह अपने भाग्य का निर्माता स्वयं को ही माने। सत्कर्म करे और कर्म-पथ पर आने वाली बाधाओं को अपने स्वावलम्बी स्वभाव से दूर करता हुआ निरन्तर प्रगति करे। इस प्रकार के मनुष्य को ही उन्नति तथा श्रेय का सौभाग्य मिलता है। ईश्वर ने सभी मनुष्यों को समान बनाया है। उसने उन्हें समान योग्यताएँ व क्षमताएँ दी हैं। जरूरत है केवल उन्हें पहचानने की और यह सब केवल कर्म को आधार मानने वाला ही कर सकता है, भाग्यवाद को नहीं।