संकेत बिन्दु प्रस्तावना, परिश्रम करने की आवश्यकता एवं लाभ, परिश्रम न करने से हानि, महान् व्यक्तियों के उदाहरण, उपसंहार।
प्रस्तावना कहा गया है कि कर्म ही जीवन है। कर्म के अभाव में जीवन का कोई अर्थ नहीं रह जाता। जीवनपर्यन्त मनुष्य को कोई-न-कोई कर्म करते रहना पड़ता है। यही कारण है कि प्राचीन ही नहीं आधुनिक विश्व साहित्य में भी श्रम की महिमा का बखान किया गया है। जीवन में सफलता प्राप्ति के लिए श्रम अनिवार्य है, इसलिए कहा गया है कि
“परिश्रम ही सफलता की कुंजी है।”
उन्हीं लोगों का जीवन सफल होता है या वे ही लोग अमर हो पाते हैं, जो जीवन को परिश्रम की आग में तपाकर उसे सोने की भाँति चमकदार बना लेते हैं। परिश्रमी व्यक्ति सदैव अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर रहता है। उसके संकल्प कभी अधूरे नहीं रहते एवं मार्ग में आने वाली सभी बाधाओं को पार करते हुए वह सफलता प्राप्त करता है।
परिश्रम करने की आवश्यकता एवं लाभ श्रम करना मनुष्य का स्वाभाविक कर्त्तव्य है। परिश्रम के बिना मनुष्य का जीवन अर्थहीन है। यदि आदिमानव श्रम नहीं करता, तो आधुनिक मानव को इतनी सुख-शान्ति कहाँ से मिलती? गहरी एवं चौड़ी नदियों के आर-पार आवागमन के लिए मज़बूत पुल, लम्बी-लम्बी सड़कें, महानगर की अट्टालिकाएँ, बड़े-बड़े कारखाने, बड़े समुद्री पोत, हवाई जहाज, रॉकेट, मानव की अन्तरिक्ष यात्रा इत्यादि सभी मानव के अथक् श्रम के ही परिणाम हैं। अपने कठोर श्रम के ही परिणामस्वरूप मानव आज आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, औद्योगिक एवं वैज्ञानिक रूप से अभूतपूर्व प्रगति प्राप्त करने में सक्षम हो सका है।
श्रम शारीरिक स्वास्थ्य के लिए भी आवश्यक है। बिना श्रम के शरीर अकर्मण्य हो जाता है एवं उसे आलस्य घेर लेता है। परिश्रम करने के बाद शरीर थक जाता है, जिससे नींद अच्छी आती है। नींद में परिश्रम के दौरान हुई शारीरिक टूट-फूट की तेज़ी से मरम्मत होती है। श्रम का अर्थ लोग केवल शारीरिक श्रम समझते हैं, जबकि ऐसा नहीं है। शारीरिक श्रम के साथ-साथ मन-मस्तिष्क के प्रयोग को मानसिक श्रम की संज्ञा दी गई है। शारीरिक श्रम ही नहीं, बल्कि मानसिक श्रम से भी शरीर थक सकता है। कारखाने में काम करने वाले मज़दूरों को जहाँ शारीरिक श्रम की आवश्यकता होती है, वही शिक्षक, वैज्ञानिक, डॉक्टर, शोधकर्ता इत्यादि को मानसिक श्रम से अपने उद्देश्यों की प्राप्ति करनी पड़ती है।
परिश्रम न करने से हानि जीवन के किसी भी क्षेत्र में सफलता प्राप्त करने के लिए श्रम का कोई विकल्प नहीं है। प्रायः देखा जाता है कि असफलता मिलने के बाद लोग आगे सफलता के लिए प्रयास करना बन्द कर देते हैं, किन्तु सफलता उन्हें ही मिलती है, जो निरन्तर प्रयासरत् रहते हैं। आलसी एवं अकर्मण्य व्यक्ति जीवन के किसी भी क्षेत्र में सफलता प्राप्त नहीं कर पाता। वह पशु के समान अपना जीवन व्यतीत कर इस संसार से विदा हो जाता है। जीवित रहते हुए भी यदि कोई बिना श्रम किए, निष्क्रिय होकर अपना जीवन व्यतीत करता है, तो उस व्यक्ति को मानव के स्थान पर मानव-रूपी पशु ही कहना बेहतर होगा।
जिस प्रकार जल गतिमान रहता है, उसी प्रकार जीवन भी गतिमान रहता है, यदि जल किसी स्थान पर अधिक समय तक एकत्र रहता है, तो उसमें से दुर्गन्ध आने लगती है, किन्तु बहता हुआ जल सदैव स्वच्छ और निर्मल रहता है। इसी प्रकार जीवन में अकर्मण्यता शरीर को आलसी एवं बेकार बना देती है इसके बाद मनुष्य किसी काम का नहीं रहता, इसलिए जीवन में सफलता प्राप्त करने के लिए निरन्तर परिश्रम करते रहना चाहिए।
प्रयास एवं परिश्रम से ही मनुष्य को किसी भी कार्य में सफलता प्राप्त होती है अर्थात् कहते हैं कि शेर को भी मृग का शिकार करना ही पड़ता है। मूंग स्वयं शेर के मुख में नहीं आ जाता। निरुद्यमी मनुष्य भाग्यवादी हो जाते हैं और सब कुछ भाग्य के सहारे छोड़कर जीवन के दिन ही पूरे करते हैं, किन्तु अपने परिश्रम पर भरोसा करने वाले लोग सफलता के लिए अन्तिम क्षण तक प्रयासरत रहते हैं। महादेवी वर्मा ने कहा है
“अब तक धरती अचल रही पैरों के नीचे, फूलों की दे ओट सुरभि के घेरे खींचे, पर पहुँचेगा पन्थी दूसरे तट पर उस दिन, जब चरणों के नीचे सागर लहराएगा।”
श्रम से दूर भागने के कारण कितनी क्षति उठानी पड़ती है, यह हम भारतवासियों से बेहतर भला कौन जान सकता है। भारतवर्ष की दासता और पतन
का मुख्य कारण यही था कि यहाँ के निवासी अकर्मण्य हो गए थे। वह समय ऐसा था, जब लोग न तो युद्ध करना चाहते थे और न ही संघर्षपूर्ण जीवन जीने में विश्वास करते थे। उनकी विलासिता और आरामतलबी ने देश को पराधीन बना दिया। यदि भारतीय उस युग में भी परिश्रमी होते, जागरूक होते, सतर्क रहते तो भारत कभी गुलाम न होता।
किसी भी दूसरे देश की भारत पर विजय प्राप्त करने की हिम्मत न होती। सच तो यह है कि उस समय भारत में न तो कोई ऐसा आध्यात्मिक गुरु था, जो भारतवासियों को उद्यमी एवं परिश्रमी बनाने की प्रेरणा देता, न ही कोई ऐसा शासक था, जिसका ध्यान देश की सीमाओं को सुरक्षित रखने की ओर जाता। यही कारण है कि विदेशी आक्रान्ता जब भारत की सीमाओं में घुसे तो निर्वाध आगे बढ़ते ही चले आए।
महान् व्यक्तियों के उदाहरण यदि इतिहास के पन्ने पलटकर देखा जाए तो यह आसानी से समझा जा सकता है कि सभी महान् व्यक्तियों ने श्रम को महत्ता दी है। सन्त कवि कबीर कपड़ा बुनते थे तो रैदास जूते गाँठते थे। भगवान का अवतार कहे जाने वाले श्रीकृष्ण भी पशुओं’ की देखभाल करते थे।
महान् साहित्यकार टॉलस्टाय जूते गाँठते थे तो जोन ऑफ आर्क को भेड़ें चराने में ही आनन्द आता था। रैमजे मैक्डॉनल्ड निर्धन श्रमिक था, परन्तु अपने अथक् परिश्रम के बल पर ही एक दिन इंग्लैण्ड का प्रधानमन्त्री बना। महामना मालवीय जी भी एक साधारण परिवार के बालक थे, परन्तु अपने परिश्रम के कारण ही उन्होंने काशी विश्वविद्यालय जैसी अभूतपूर्व संस्था का निर्माण किया। अतः हम कह सकते हैं कि परिश्रम वह आन्तरिक शक्ति हैं जिसके बल पर ही साधारण से असाधारण बनने की यात्रा तय की जा सकती है।
उपसंहार इस तरह जीवन में श्रम का अत्यधिक महत्त्व है। परिश्रमी व्यक्ति को अर्थ और यश दोनों ही मिलते हैं। वह मरणोपरान्त भी अपने कर्मों के कारण आदरपूर्वक याद किया जाता है। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने ठीक ही लिखा है
“श्रम होता सबसे अमूल्य धन, सब जन खूब कमाते, सब अशंक रहते अभाव से, सब इच्छित सुख पाते। राजा-प्रजा नहीं कुछ होता, होते मात्र मनुज ही, भाग्य-लेखा होता न मनुज का, होता कर्मठ भुज ही।”